छत्तीसगढ़ महिमा कोसीर। 2 मई 2022,
दो दशक से अधिक समय हो गया कॉलेज के पढ़ाई के पहले एक काम चुन लिया था जिसे पत्रकारिता कहते हैं भले ही इसकी डिग्री हासिल करना या कॉलेज में जा कर पढ़ाई करना संभव न हो सका पर बिना रुके- थके काम कर रहें है लोग इस विधा को भले ही मजदूर की सूची में नहीं रखते है पर यह मजदूरी तो ही है। पर कोई ग्रामीण अंचल के पत्रकारिता कर रहे पत्रकार को न अखबार का मालिक,सम्पादक,कोई मजदूरी देता है न कोई सुध लेता है ।वह दिन -रात अंतिम ब्यक्ति के लिए मजदूरी करता है मैं जो कह रहा हूँ अटपटा जरूर लगेगा पर यही सच है।ग्रामीण अंचल में जो लोग पत्रकारिता करते हैं वास्तव में बेरोजगार हैं ? उनके पास कोई काम नहीं है ? क्या उन्हें मजदूरी मिलनी चाहिए ? अखबार का कोई संवाददाता है कोई एजेंसी ले रखी है पर क्या इस काम से उनका परिवार चल सकता है ? कभी कोई नहीं सोचता बस उस गरीब मजदूर पर उंगली उठाई जाती है। कभी उनकी कोई परवाह नहीं करता। उधेड़ बुन जिंदगी के बीच फसा रहता है कभी वह नहीं थकता नहीं हारता मुश्किल में भी उसका कोई विशेष साथ नहीं होता क्यों वह भी एक मजदूर ही तो है ? पत्रकार को भी मजदूरी मिलनी चाहिए ? जब सभी वर्ग का एक निश्चित वेतन है तो पत्रकारों का भी उसके काम के हिसाब से मानदेय हो ?कोई निः शुल्क काम नहीं करता पर पत्रकारिता ऐसा विधा है जिसमें वह मजदूरी करके भी कुछ नहीं कमा पाता क्या ग्रामीण पत्रकारिता ऐसा ही चलता रहेगा। कुछ तथाकथित लोग कहेंगे विज्ञापन लेते हैं ? इस विज्ञापन में क्या उसका दिन रोटी चलता है ? क्या कोई उसे कोई विशेष सहयोग करता है ? आखिर ग्रामीण पत्रकारिता कर रहे पत्रकारों की स्थिति क्या है कभी किसी वर्ग ने सुध नहीं लिया। पूरे भारत वर्ष और प्रदेश स्तर में पत्रकारों की संगठन है पर यह संगठन ग्रामीण पत्रकारिता के लिए अब तक क्या है ? और क्या कर सकता है ? ये बहुत सारी बातें हैं पर आज श्रमिक दिवस पर मैं इतना ही कहना चाहता हूं कि पत्रकार भी एक मजदूर ही है जो अंतिम ब्यक्ति की लड़ाई लड़ रहा है। आप कुछ भी सोंच सकते है या इसे पढ़ कर आप लोगों को शायद अच्छा न लगे पर यही सच है।
हाँ !मैं भी मजदूर ही तो हूँ ,,,,
(लक्ष्मी नारायण लहरे "साहिल")