अस्पृश्यता सामाजिक बुराई से आखिर छुटकारा कब और कैसे मिलेगी ?


सभ्य समाज की अवधारणा आज भी कहीं न कहीं खोखली नजर आती है। 21 वीं सदी में हम अपना जीवन गुजर - बसर कर रहे हैं,फिर भी 100 वर्ष पूर्व की विसंगतियों में जिंदगी जीने को मजबूर दिखते हैं। 
आज विज्ञान ने बड़े - बड़े अविष्कार किये हैं पर समाज आज भी कहीं ना कहीं धर्म और असमानता की जंजीरों में जकड़ा नज़र आता हैं।
लोग मंदिर में देवी का प्रतीक मान कर पत्थर की मूरत को पूजते हैं। उसकी आराधना करते हैं,उनकी शक्ति का गुणगान करते हैं,मगर आज भी नारी जाति के साथ अन्याय,अत्याचार भेदभाव क्यों ?
समाज आज भी नारी को सम्मान देने से क्यों पीछे हट जाता है। क्यों वह दहेज की भेंट चढ़ जाती है, कभी लव जिहाद और कभी अंतर जातीय विवाह की शैय्या पर सिसकती नज़र आती है। समाज की खाप पंचायतें उसे अपने ही घर से बेघर कर देती है। आखिर कब तक समाज ये दोहरे माप दण्ड अपना कर दुस्साहसिख कृत्य करता रहेगा..? समाज कब तक तमाशबीन बना रहेगा औरत कब तक प्रताड़ित होती रहेगी..?
इस तथाकथित सभ्य समाज की सोंच में कब परिवर्तन होगा ? गरीब आखिर समाज के ठेकेदारों और धर्म के मठाधीशों की अन्याय कब सहता रहेगा..?
 कब होगा उद्धार कब मिलेगा न्याय..? 
यह सिलसिला आखिर कब रूकेगा..?  
यूं ही चलता कमजोर वर्ग को न्याय कौन दिलाएगा ..? 
गांव टोला,शहर,समाज में समानता की भावना पैदा कौन करेगा.? अमीर - गरीब के बीच की खाई को अब पाटना ही होगा।
     "अस्पृश्यता सामाजिक बुराई है। 
बापू ने कहा था अस्पृश्यता महापाप है,यह बात उन्होंने 13 अप्रैल 1921को अहमदाबाद के दलित सम्मेलन में अपने भाषण में कही थी उसने भारतीय सामाजिक व्यवस्था में जड बना चुकी कुरीतियों पर चौतरफा हमला किया था,धर्म शास्त्रो से उदाहरण देते हुए इस व्यवस्था को समाप्त करने की अपील की और दलित लोगों से आह्वान किया था कि वे स्वयं आगे आएं और इन कुरीतियों को मानने से इनकार दें,इस बात को 100 वर्ष हो गए फिर भी आज भेद - भाव छुआ छूत अमीर गरीब की भावन नहीं मिट सकी है।
भारत को आजाद हुए 75 बरस बीत गए। 
वहीं 1950 में भारत के लोगों ने संविधान अंगीकार कर लिया। अस्पृश्यता उन्मूलन के 67 बरस गुजर गए। 
क्या इन वर्षों में अस्पृश्यता खत्म हो पायी..? 
आखिर संविधान मूल आत्मा को जमीन पर उतारने में चूक कहां पर हो रही है ? 
संविधान के अनुच्छेद 17 के अनुसार अस्पृश्यता या छुआछूत का उन्मूलन किया जा चुका है, इसका मतलब यह है कि अब कोई भी व्यक्ति दलितों को पढ़ने,मन्दिरों में जाने और सार्वजनिक सुविधाओं का इस्तेमाल करने से नहीं रोक सकता। वहीं संविधान के अनुच्छेद 15 में कहा गया है कि भारत के किसी भी नागरिक के साथ धर्म,नस्ल,जाति,लिंग या जन्म स्थान पर भेदभाव नहीं किया जाएगा।
"सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम - संसद ने अस्पृश्यता के उन्मूलन के लिए अस्पृश्यता (अपराध ) अधिनियम 1955 पारित किया था तथा 1976 में इसका संशोधन कर इसका नाम सिविल अधिकार संरक्षण कर दिया गया। अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (उत्पीड़न निवारण )अधिनियम 1989 के तहत प्रथम बार उत्पीड़न की व्यापक व्याख्या की गई है।
अंतर जातीय विवाह - अंतर जातीय विवाह का अर्थ है दो अलग - अलग जाति के वर और कन्या का विवाह,
चाहे वो किसी भी जाति से हो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति,पिछड़ा वर्ग और सामान्य कोई भी किसी भी समुदाय के साथ विवाह रचा सकता है।
"संविधान निर्माता डॉ.भीमराव अंबेडकर जी जैसे समतावादी दर्शन में अंतर जातीय विवाह को प्रोत्साहन दे कर जाति व्यवस्था को कमजोर करने पर बल दिया हैं और संविधान में भी अंतर जाति विवाह पर बल दिया गया है और सरकार को ऐसे जोड़ों की मदद की बात कही गई है। भारतीय समाज में आज भी जातियां आर्थिक,सामाजिक,राजनीतिक हैसियत निर्धारण करती है। भारत में सामाजिक गतिशीलता अभी भी काफी कम है भारतीय संविधान में वर्णित बन्धुत्व के विचार को परम्परागत समाज में उस तरह स्वीकार्यता नहीं मिल पायी जैसी आवश्यकता थी या है।
अंतर जातीय विवाह की बात करें तब मध्यप्रदेश के समय 1995 में अनुसूचित जाति आयोग के द्वारा यह योजना लागू की गई थी।
छत्तीसगढ सरकार ने इस योजना को और महत्व देते हुए 2019 में और संशोधन कर इसे छत्तीसगढ़ सरकार अंतर जातीय विवाह योजना चालू की गई,जो हिन्दू विवाह एक्ट 1995 के तहत रजिस्डर्ड होती है उन्हें इसका लाभ मिलता है और यह योजना प्रोत्साहित कर जाति भेद - भाव में कमी लाने में मदद करती है। 
इतने संरक्षण के बाद आज भी समाज में अस्पृश्यता फैली है आज भी गरीब इस अस्पृश्यता की जंजीर में जकड़ा दिखता है आखिर समाज इन नियमो के बाद भी कानून को कैसे ठेंगा दिखा रहा है..? 
मजलूमों पर अब भी अत्याचार हो रहा है उनके साथ न्याय नहीं हो पा रहा है ! 
इन सब बातों को लेकर उस सत्य को कहने की एक कोशिश करना चाहता हूं जो आज एक गरीब परिवार इस अस्पृश्यता की शिकार हो गया है और वह पद्मनी कैसे इस विभीषिका से उबर पायेगी। 
क्या अनुसूचित जाति में जन्मी पद्मनी इस समाज से लड़ पायेगी ? आखिर आज हमें अस्पृश्यता जैसे विषय पर इतनी विस्त्रित बातें  करने की जरूरत क्यों पढ़ रही है.? ऐसा क्या हुआ कि आज भी फिर दबा - कुचला समाज इस गंभीर कुरीति का शिकार होकर जी रहा है। 
कई बार ऐसी घटना समाज में दब कर जाती हैं,तो कभी -  कभी कोई हिम्मत जुटा कर लड़ जाता है,वैसे इस तरह की घटनाएं सामने आती रहती हैं, जिस पर अब अंकुश की जरूरत है।
ताजा मामला .... छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिला पाटन तहसील के छोटे से गांव जरवाय की है जो प्रकाश में आया है और एक गरीब परिवार पर 1 लाख के दंड के साथ परगना के 18 गांव को भोजन कराने का दंड दिया गया है। 
पद्मनी के ससुराल में समाज ने जो शिकंजा कसा है परिवार उससे कैसे मुक्त हो सकेगा.? कैसे चुका पायेगा इतनी रकम और कैसे करायेगा भोजन यह सब एक गरीब परिवार के लिए एक बड़ी चुनौती है।
पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के पाटन तहसील के गांव बोरवाय से खबर प्रकाश में आयी है। 
यू ट्यूबर ओम प्रकाश अवसर ने पद्मनी के घर जा कर वीडियो बनाकर उनसे चर्चा कर अपने चैनल के माध्यम से पीड़ित पक्ष की बात को रखने की कोशिश करते हुए इस गंम्भीर मुद्दें पर ध्यान आकर्षित करते हुए न्याय व्यवस्था और पीड़ित की बातों को रखा है।
जिस पर चर्चा तो होनी चाहिए आखिर किसी को न्याय मिलने की बात है।
बोरवाय गांव की घटना को अस्पृश्यता कहें या खाप पंचायत की न्याय व्यवस्था जो कानून को ठेंगा दिखा रही है ? यह मामला एक गरीब परिवार के लिए सजा से कम नहीं है अर्जुन मेश्राम जिसकी जाति छत्तीसगढ महार/महरा समाज झरिया शाखा में आता है अपने ही गांव बोरवाय की रहने वाली पद्मनी अनुसूचित जाति की लड़की से 03 वर्ष पहले विवाह रचा लेता है। 
इस विवाह के बाद अर्जुन अपने ही समाज से अलग - थलग हो जाता है इन 3 वर्षों तक वह समाज से बाहर की दुनियां में अपना गुजर - बसर करता रहता है उसके विवाह को समाज स्वीकार नहीं करता और वह और उसका परिवार समाज की मुख्य धारा से टूट जाता है।अर्जुन का पिता अशोक मेश्राम इस व्यवस्था से हार कर  समाज की मुख्य धारा में जुड़ने समाज से अनुनय विनय करता है समाज उसके परिवार को स्वीकार कर ले।
यह बात छत्तीसगढ महार/महरा समाज झरिया शाखा के मुख्या खोलबाहरा राम नेवारे तक चली जाती है और पद्मनी सतनामी के ससुर जो गरीब परिवार से तार्लुख रखता है रोजी - मजदूरी कर अपना पेट पालता है उसे उसके ही समाज के लोग अपने महार समाज में मिलाने के लिए 1 लाख रू.के दंड से दंडित कर फैसला लेते हैं और अपने नावागांव परगना के 18 गांव के लोगों को एक दिन भोजन कराने का जिम्मेदारी और दिन तय कर देते है तब उस परिवार के ऊपर पहाड़ टूट पड़ता है पर समाज की अव्हेलना करने हिम्मत नहीं जुटा पाता और फैसला मानने वह राजी हो जाता है। वही पद्मनी को ये भी कहा जाता है कि तुम समाज में आ - जा सकती हो पर समाज के उछल - मंगल कार्यक्रमों में भोजन नहीं बना सकती हो। लोगों को नहीं खिला सकती हो,आखिर यह कैसी न्याय व्यवस्था है समाज की.?
अर्जुन के पिता ने यू - टूयूब चैनल में यह बात कबूल किया है कि वह समाज को अपने रिस्तेदारो से उधार लेकर 25 हजार रुपये अपने समाज में दे दिया है और बाकी की रकम को रोजी मजदूरी कर किस्तों में दे पायेगा। इस परगना के 18 गांव को भोजन रविवार 17 अप्रैल 2022 को करना है। समाज में इस तरह का खाप पंचायत समाज के लिए एक अभिषाप बन गया है।
क्या दलित लड़की से विवाह की यही सजा है .?
क्या आज भी लोग ऐसे समाज में रहते है जो अपने ही समाज के लोगों की खाप पंचायत के नाम पर हत्या कर देते हैं..? जिन्हें सम्मान मिलना चाहिए वे दंड के भागीदारी बन गए हैं।
संविधान अनुच्छेद 17 और 15 का भी हत्या हो रही है ?
समाज में ऐसे तुगलकी फरमान कब तक चलेगा, अस्पृश्यता से लोगों को क्या कभी मुक्ति मिलेगी या समाज के लोगों का शोषण होता रहेगा। 
छत्तीसगढ महार/महरा समाज झरिया शाखा वैसे मध्यप्रदेश के समय अनुसूचित जाति में आते थे जब छत्तीसगढ़ अलग हुआ और नया प्रदेश बना तब से इनकी जाति प्रमाण पत्र नहीं बन पा रहे है और ये वर्तमान में सामान्य वर्ग से तार्लुक रख रहे हैं।
समाज में भेदभाव से लोग पीड़ित हैं और यह समाज अपनी आन बान शान के लिए एक - दूसरे का शोषण कर रहे हैं। आखिर पद्मनी और अर्जुन ने ऐसा क्या कर दिया जिससे समाज का सिर नीचा दिखने लगा।
अर्जुन के परिवार को दंडित करना क्या न्याय संगत है ?आज भी अस्पृश्यता की चक्की में दलित लोग पीस रहे हैं। ऐसे मामलों पर कानून ब्यवस्था को संज्ञान में लेने की जरूरत महसूस होती है। पद्मनी कहें या अर्जुन इस परिवार के साथ न्याय होना चाहिए।
समाज में आज भी जागरूकता का अभाव दिखता है।
                  लक्ष्मी नारायण लहरे "साहिल"
                         सह - सम्पादक 
                  छत्तीसगढ़ महिमा रायपुर 
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